Rani Durgavati Mandavi, the great heroine of the Gondwana Empireगोंडवाना साम्राज्य की महान वीरांगना रानी दुर्गावती मडावी
December 31, 2019
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AS markam
Rani Durgavati Mandavi,
the great heroine of the Gondwana Empire
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Today is the day of Rani Durgavati Madhavi sacrifices, all of whom pay a heartfelt tribute and try to find out why Rani Durgavati holds a special place in the history of Gondwana. In fact, the land of Gondwana is filled with hundreds of royalty and aristocratic tales, but the dust overwhelms everyone. Rani Durgavati is one of the few bright stars who cannot even denigrate history. The history of Gondwana is full of stories of his sacrifice, sacrifice and valor. Today, through this article, we learn about the bravery of Rani Durgavati and the role of the four forts (Kalinjar Fort, Singorgarh Fort, Gadan Fort (Jabalpur) and Chauragarh Fort), whose information is still common. Reach.किसी भी कौम का इतिहास उसके महापुरुषों और महान मातृ शक्तियों के बलिदान और वीरता से बनता है। आज भले ही गोंडवाना अपने अस्तित्व की पहचान को बचाने के लिए जूझ रहा हो लेकिन गोंडवाना का अतीत बहुत ही गौरवशाली और महान रहा है। पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के साथ-साथ महाराष्ट्र तक गोंडवाना के वीरों और वीरांगनाओं की कीर्ति पताकायें आज भी फहरा रही हैं। ये अलग बात है कि ब्राह्मणवादी इतिहासकारों ने कभी भी गोंडवाना के वीर वीरांगनाओं के इतिहास के साथ न्याय नहीं किया।
रानी दुर्गावती ऐसी ही एक महान वीरांगना थीं जिनके कारण आज भी इतिहास में गोंडों का अस्तित्व बचा हुआ है। उनका बलिदान इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है, कि जहां ताकतवर मुगल साम्राज्य के आगे बड़े-बड़े राजा, महाराजा अपने आप झुक जाते थे और स्वेच्छा से समर्पण कर देते थे, वहीं रानी दुर्गावती ने मरते दम तक गोंडवाना की आन, बान और शान को बचाए रखा और मुगलों के आगे समर्पण नहीं किया।
रानी दुर्गावती का जन्म और बचपन
Rani Durgavati was born on October 5, 1524 (Samvat 1446, Ashwin Sudi Ashtami) at the Kalinjar fort in Banda district of Uttar Pradesh. His father's name was Raja Kirat Roy (Keerthi Varman) and his mother's name was Kamalavati. King Kirat Rai was the last Chandela king of Kalinjar fort. Durgashtami is the day of her birth and Purna Mahal is a celebration of Durgapuja happiness. Since he was born in Durgasamy, his parents named him Durgavati. Kanye Durgavati was very beautiful, gentle and brave.
Rani Durgavati's childhood was spent at Kalinjar Fort. There he began to install Dhoshwari, an arrow sword and many other weapons. His studies were completed by special priests inside the fort. The entire childhood was spent inside the Kalinjar fort. Gradually, Durgavati, along with her friends and soldiers, came out of the fort and began hunting lions in the woods. Talk about his speed, bravery, courage and beauty spread far and wide. The Chandela dynasty is weak and is under constant attack from the Mughals as the princess steps on the threshold.
चंदेल राजा कीरत राय और गोंड राजा संग्राम शाह के राज्यों की सीमाएं एक दूसरे से मिलती थी और दोनों राजाओं में काफी मित्रता भी थी। एक बार रानी दुर्गावती शेर का शिकार करते-करते काफी दूर निकल गयी थी, तभी उनकी नज़र अपने राज्य के भ्रमण पर निकले राजकुमार दलपत शाह मड़ावी पर पड़ी और एक ही नज़र में वे उन्हे दिल दे बैठी। राजकुमारी दुर्गावती पहले से ही दलपत शाह की वीरता और हिम्मत के किस्से सुन चुकी थी।
चित्र 1. कलिंजर के महल का वो आँगन जहां रानी दुर्गावती का बचपन बीता था
इसी दौरान एक पत्र के माध्यम से राजकुमारी ने राजकुमार दलपत शाह से उन्हे अपनी रानी बनाने का प्रस्ताव भेजा। पत्र पढ़कर तुरंत ही राजकुमार दलपत शाह पिता संग्राम शाह की आज्ञा लेकर कलिंजर के किले में पहुँच गए और बातचीत से राजा कीरत राय को प्रभावित किया और एक सांकेतिक विवाह करके राजकुमारी को अपने साथ सिंघोरगढ़ किले में ले आए। जहां पर गोंडी विधि विधान से वर्ष 1542 दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ । शादी के समय दलपत शाह की उम्र 25 वर्ष और राजकुमारी दुर्गावती की उम्र 18 वर्ष की थी। शादी के कुछ साल तक दोनों दमोह जिले के सिंगोरगढ़ किले में ही रहे। इस शादी के बाद कीरत राय को शेर शाह सूरी से लड़ने के लिए गोंड सेनाओं की सहायता मिली लेकिन शेर शाह सूरी ने कीरत राय को हराकर 1545 में कलिंजर के किले पर कब्जा कर लिया।
सिंगोरगढ़ का किला राजा बाने बासौर ने बनवाया था, जिसे राजा संग्राम शाह ने जीत लिया था और गोंडवाना के उत्तरी सीमा की रक्षा के लिए सुदृढ़ किया था और अपने बेटे दलपत शाह को उसकी ज़िम्मेदारी सौंपी थी। महारानी दुर्गावती शादी के बाद अपने पति दलपत शाह के साथ इसी किले में रहने लगी। यह किला बहुत ही खूबसूरत पहाड़ी पर घने जंगलों के बीच स्थित है जिसकी खूबसूरती देखती ही बनती है।
कलिंजर के किले के विजय के बाद मुगल दक्षिण की तरफ बढ़ने लगे और सिंगोरगढ़ के किले पर नज़रें जमाये हुए थे। किले पर काफी खतरा बढ़ रहा था, इधर रानी दुर्गावती भी गर्भवती हो गई थी। रानी की बेहतर देखभाल और सुरक्षा की दृष्टि से उन्हे सिंगोरगढ़ किले से मदनमहल, जबलपुर लाया गया जहां उनके ससुर संग्राम शाह रहते थे और सुरक्षा स्थिति काफी मजबूत थी। शादी के एक साल के बाद ही वर्ष 1543 में रानी दुर्गावती के ससुर राजा संग्राम साह की मृत्यु हो गयी।
चित्र 2. सिंगोरगढ़ का किला जहां रानी दुर्गावती की शादी सम्पन्न हुई और शादी के बाद का समय बिताया
सिंगोरगढ़ का किला दमोह में सिंग्रामुपर से करीब 9 कि.मी की दूरी पर स्थित है। चौरागढ़ के अलावा सिंगौरगढ़ भी महाराजा संग्राम शाह की राजधानी हुआ करती थी। यहाँ पर गोंडों की कई पीढ़ियों ने राज किया था। यहीं पर एक खूबसूरत तालाब भी है जो कमाल के लाल और सफ़ेद फूलों से भरा रहता है।
कठिन भौगोलिक स्थिति का यह किला शत्रुओं के लिए बहुत ही मुश्किल चुनौती पेश करता था। महाराजा संग्राम शाह का विशाल साम्राज्य 52 गढ़ों तक फैला था, जो पश्चिम में गिन्नौर गढ़ भोपाल, पूरब में लाफागढ़ बिलासपुर, उत्तर में सिंगोरगढ़, दमोह और दक्षिण में टीपागढ़ महाराष्ट्र तक फैला था। युवराज दलपत शाह अपनी नई नवेली रानी के साथ, किसी भी गढ़ पर रह सकते थे लेकिन उन्होने सिंगोरगढ़ के किले को ही चुना था।
गढ़ा गोंड साम्राज्य की नीव राजा यादवराय ने रखी थी। राजा मदनसिंह (34वें राजा) इसी गढ़ा साम्राज्य के वंशज थे जिन्होने मदन महल का निर्माण करवाया था राजा मदनसिंह करीब 1116 ई० से राज्यारंभ किये । बाद में ये किला महाराजा संग्रामशाह को विरासत में प्राप्त हुआ। यह राजपरिवार मड़ावी गोत्र का था जो गोंडी परंपरा के अनुसार सात देव के अंतर्गत आता है। गढ़ मंडला के राजा संग्राम शाह के दो बेटे थे । बड़े बेटे का नाम दलपत शाह तथा छोटे बेटे का नाम चन्द्र शाह था। इस राज घराने ने जबलपुर के पास गढ़ा में एक खूबसूरत महल का निर्माण किया, जिसे मदन महल के नाम से जाना जाता है। यह एक अद्भुत किला है जो एक चट्टान के उपर बनाया गया है और नीचे महल के अन्य हिस्से हैं।
यह बहुत ही सुरक्षित और राजसी सुख सुविधाओं से परिपूर्ण किला था इसलिए गर्भवती रानी दुर्गावती को इस किले में रखा गया और इसी किले में वर्ष 1545 को रानी दुर्गावती ने अपने बच्चे को जन्म दिया जिसका नाम वीर नारायण (बीरसा) रखा गया।
चित्र 3 अ. रानी दुर्गावती ने इसी मदन महल में अपने बच्चे वीर नयरन को जन्म दिया
11वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक गढ़ा(जबलपुर) गोन्ड राज्य की राजधानी हुआ करता था, जो गोंड राजा मदन शाह के द्वारा बसाया गया था। यहीं से राजा संग्राम शाह ने कुल 52 गढ़ स्थापित किये और गोंडवाना राज्य का विस्तार किया जिसे दलपत शाह और रानी दुर्गावती ने बाद में संभाला। इस किले को पहले मदन महल फ़ोर्ट और अब रानी दुर्गावती फोर्ट के नाम से जाना जाता है।
चित्र 3 ब. रानी दुर्गावती ने इसी मदन महल में अपने बच्चे वीर नारायण को जन्म दिया
वर्ष 1543 में इसी किले में राजा संग्राम शाह की मृत्यु हुई थी और इसी किले में बाद में उनके बड़े बेटे दलपत शाह की भी 1550 में मात्र 33 साल की अल्पायु में मृत्यु हो गयी। शादी के महज 8 साल बाद ही रानी दुर्गावती विधवा हो गयी। दलपत शाह की मृत्यु के समय उनके बेटे वीर नरायण की उम्र महज 5 साल की थी (। ससुर संग्राम शाह और पति दलपत शाह की मृत्यु के कारण पूरे गढ़ा के शासन प्रशासन की ज़िम्मेदारी रानी दुर्गावती पर आ गयी।
दलपत शाह के मंत्रियों और विदद्वानों आधार सिंह कायस्थ, महेश ठाकुर, केशव लौगाक्षी और लक्ष्मी प्रसाद दीक्षित ने वीर नारायण का राज्याभिषेक किया और रानी दुर्गावती को शासन चलाने के लिए तैयार किया। शासन शक्ति हाथ मे आते ही रानी ने बहुत ही सक्रियता से राज्य का समस्त प्रशासनिक कार्य अपने हाथों में ले लिया। अपनी राजनीतिक सूझबूझ और दूरदर्शिता से रानी ने बहुत ही बेहतर ढंग से गढ़ा साम्राज्य को संभाला और आगे बढ़ाया। कहने को तो वीर नारायण का राज्य काल था लेकिन पूरे शासन प्रणाली की सूत्रधार रानी दुर्गावती ही थीं।
रानी दुर्गावती के समय के समय गोंडवाना साम्राज्य पर बाहरी आक्रमण
रानी दुर्गावती के गढ़ा राज्य की सम्पन्नता और वैभव की कहानियाँ सुनकर कई राजा उस पर अधिकार करने की इच्छा रखने लगे। गढ़ा पर पहला आक्रमण मियाना अफगानों ने किया जो रायसेन के आसपास रहते थे। इस आक्रमण को रानी दुर्गावती ने बड़ी कुशलता से असफल कर दिया और कई अफगानों को बंदी बना लिया। उसके बाद कई अफगानों ने रानी की सेना में ही नौकरी कर ली और रानी के लिए लड़ने लगे। इन्ही अफगान सरदारों में एक था शम्स खाँ मियाना जो रानी दुर्गावती की सेना में महत्त्वपूर्ण सैन्य अधिकारी था।
इसी बीच दूसरा आक्रमण वर्ष 1556 में मालवा के सुल्तान सुजात खान के बेटे बाज बहादुर ने किया और पश्चिम की तरफ से गढ़ा पर चढ़ाई की लेकिन रानी दुर्गावती की सूझ बूझ और कुशल युद्ध रणनीति के कारण सुल्तानों की एक न चली। बाज बहादुर जान बचाकर भाग गया और उसकी पूरी सैन्य शक्ति गोंड सनाओं द्वारा तहस नहस कर दी गयी। इस तरह एक स्त्री से हारने के कारण बाज बहादुर की बड़ी बदनामी हुई और उसको हराने के कारण रानी दुर्गावती की चर्चा चारों ओर तेजी से फैल गयी।
पश्चिम में रानी दुर्गावती के साम्राज्य की सीमा मालवा से तथा उत्तर में कड़ा और माणिकपुर सूबे की सीमा से लगती थी। पश्चिम में बाजबहादुर तो उत्तर में आसफ़ खान से खतरा बराबर बना हुआ था। इसी दौरान बाजबहादुर को हराकर मुगल सेना ने मालवा पर भी अधिकार कर लिया। इस तरह अब रानी दुर्गावती के गोंडवाना साम्राज्य की उत्तरी और पश्चिमी दोनों सीमाएं मुगल सल्तनत से मिलने लगी थीं। फिर भी रानी को मुगलों से कभी कोई खतरा महसूस नहीं हुआ और न ही भविष्य में होने वाले मुगल आक्रमण के लिए कोई विशेष तैयारी की। रानी का यही अति आत्मविश्वास गोंडवाना साम्राज्य के पतन का कारण बना।
रानी दुर्गावती का शासन काल
इधर गढ़ा साम्राज्य की पताका रानी दुर्गावती के नेतृत्व ऊंचाई पर फहरा रही थी और उसी समय पानीपत की दूसरे युद्ध में हेमू को परास्त कर दिल्ली की सल्तनत पर मुगल बादशाह अकबर सत्तारूढ़ हो चुका था। वर्ष 1562 में अकबर की सेना मालवा के शासक बाजबहादुर को हराकर मालवा को अपने आधीन कर चुकी थी।
गढ़ा राज्य की समृद्धि और वैभव को सुनकर आसफ़ खाँ ने अकबर की अनुमति से रानी पर आक्रमण करने की योजना बना डाली। आसफ खाँ ने रीवाँ के राजा रामचंद्र को परास्त करते हुए गढ़ा को जीतने के लिए गढ़ा की ओर बढ़ गया। गढ़ा की उत्तरी सीमा तक आने पर भी रानी दुर्गावती को चिंता नही हुई क्यूंकि उन्हे अपनी सेना कि शक्ति, अपने साहस और अपनी योग्यता पर भरोसा था(अबुल फज़ल)। यहीं पर रानी दुर्गावती से चूक हुई और वो आसफ खाँ के बड़ी सेना और साजो सामान से लैश सैनिकों का सामना करने के लिए अपनी सेना को पहले से ही तैयार न कर सकीं।
दलपत शाह की मृत्यु के बाद रानी दुर्गावती ने गढ़ा की राजधानी सिंगोरगढ़ से बदलकर चौरागढ कर दी थी। चौरागढ़ किला अत्यंत दुर्गम स्थान पर घने जंगलों और पहाड़ों पर बना था। यह किला सुरक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। यहाँ पर रानी का खजाना था। यहीं पर वीर नारायण की होने वाली पत्नी को रखा गया गया जो राजा पूरागढ़ की बेटी थी। वीर नारायण लगभग 19 वर्ष का जवान था जिसकी शादी रानी दुर्गावती चौरागढ़ के किले में धूमधाम से करने का प्लान कर चुकी थी। रानी के जीवन का यह चौथा किला था जिसमें उन्होने अपने शासन व्यवस्था का केंद्र बनाया और यहीं से सभी बावन गढ़ों का नियंत्रण जारी रखा।
चित्र 4. गढ़ा की नई राजधानी चौरागढ़ (भग्नावशेष) जहां पर गोंडवाना रियासत का खजाना था। रानी दुर्गावती ने पति की मृत्यु के बाद गढ़ा का शासन यही से संचालित किया था
जब रानी दुर्गावती सिंगोरगढ़ में अपने किले की शासन व्यवस्था का जायजा ले रही थीं, तभी उन्हे खबर लगी की गोंडवाना पर आक्रमण के लिए मुगल सेनापति आसफ खाँ लाव लश्कर के साथ दमोह तक आ चुका है। एक जानकारी के अनुसार आसफ खाँ की सेना में पचास हज़ार घुड़सवार और पैदल सैनिक शामिल थे(तबकात-ए-अकबरी)। आसफ़ खाँ ने गढ़ा पर उत्तर की दिशा से आक्रमण किया और दामोह से होते हुए गढ़ा की तरफ चला। यकायक आक्रमण की खबर सुनकर रानी के सैनिकों में भगदड़ मच गयी लेकिन रानी दुर्गावती ने बड़े धीरज और साहस से स्थिति को संभाला और अपने सैनिकों को इकट्ठा किया और उनके मनोबल को बढ़ाया।
आधार सिंह कायस्थ ने रानी को अकबर की सेना की विशालता, उसकी व्यूह रचना और तोपों के बारे में बताया और ये भी बताया की उनकी अपनी सेना के सैकड़ों सैनिक सेना को छोडकर भाग खड़े हुए हैं। रानी इस बात से बिलकुल भी विचलित नहीं हुई उन्होने अपने मंत्री आधार सिंह से कहा कि “अपमानजनक जीवन से सम्मानजनक मृत्यु बेहतर है। यदि अकबर स्वयं यहाँ आता तो उसके लिए सम्मान प्रकट करना मेरे लिए उचित था। किन्तु आसफ खाँ क्या समझे कि रानी का पद क्या होता है? यही सबसे उत्तम होगा कि मैं वीरतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करूँ।“ (स
रानी ने कुछ सैनिको को सिंगोरगढ़ किले कि सुरक्षा में छोडकर खुद गढ़ा(जबलपुर) की तरफ चल दी और गढ़ा आकार अपनी सेना को संगठित करना शुरू किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लगभग 5 हज़ार घुड़सवार और पैदल सैनिको के साथ रानी ने आसफ़ खाँ से मुक़ाबला करने का फैसला लिया। आसफ़ खाँ ने सिंगोरगढ़ किले को आसानी से फतह कर लिया और अपनी सेना के साथ गढ़ा को कब्जा करने के लिए निकल पड़ा।
रानी दुर्गावती ने अपने सेनापतियों के साथ विचार विमर्श किया और सेना को लेकर गढ़ा के दक्षिण में एक सुरक्षित क्षेत्र नरई के नाला के पास चली गयी। यह स्थान गौर और नर्मदा नदियों से धिरा हुआ था। नरई नाले के सुरक्षित स्थान पर आसफ खाँ के आने का इंतज़ार करने लगी।
तब तक आसफ़ खाँ गढ़ा(जबलपुर) आ चुका था लेकिन गढ़ा के किले में रानी को न पाकर अपनी सेना को उनको ढूढ़ने में लगा दिया। जैसे ही उसे रानी के नरई नाले के करीब छिपे होने का पता चला उसने अपनी सेना को युद्ध का आदेश दिया और खुद रानी के दूसरे किले गढ़ा पर कब्जा कर लिया।
इसी बीच 23 जून 1564 की सुबह रानी के सैनिकों और आसफ़ खाँ के सैनिकों के बीच भयंकर युद्ध शुरू हो गया । आसफ़ खाँ के मुगल सरदारों नाज़िर मुहम्मद और आक मुहम्मद ने कुछ सैनिकों के साथ नरई नाले की तरफ जाने वाले रास्ते पर अधिकार कर लिया जिसमे रानी के हाथी सेना के फौजदार अर्जुनदास बैस की मृत्यु हो गयी(सुमन कुमारी 2012)।
इस दिन रानी के पुत्र बीर नारायण ने आसफ खाँ की सेना को तीन बार पीछे धकेला और अंत में घायल हो गया। तब रानी ने अपने सिपाहियों को उसे सुरक्षित जगह चौरागढ़ (चौगान का किला) ले जाने का आदेश दिया और खुद अपने हाथी सरमन पर सवार होकर आसफ खाँ की सेना से लोहा लेने निकल पड़ी। आसफ खाँ की सेना में रानी दुर्गावती की सेना से कई गुना सैनिक, घुड़सवार और तोपखाने थे फिर भी रानी ने पूरी सेना को शाम तक मुक़ाबला करती रही और मुगल सेना को कई बार पीछे जाने पर मजबूर किया।
दिन के अस्त होने पर रानी ने अपने सिपहसलाहकारों को बुलाया और उनसे कहा कि हम लोग अभी रात में ही मुगल सेना पर आक्रमण कर दें नहीं तो सुबह तक खुद आसफ़ खाँ अपने तोपखाने और गोला बारूद के साथ गढ़ा से नरई नाला आ जाएगा और युद्ध जीतना मुश्किल होगा। लेकिन रानी के प्रस्ताव से कोई भी सहमत न हुआ(सुरेश मिश्रा 2008)। रानी के प्रधान सचिव आधार सिंह और ब्राह्मण सलाहकारों ने ऐसा न करने का सुझाव दिया। उनके सभी ब्राह्मण सलहकार महेश ठाकुर,केशव लौगाक्षि और लक्ष्मी प्रसाद दीक्षित आदि ने उन्हे रात्रि में युद्ध न करने का धर्म पाठ पढ़ाया और सेना के सेनापतियों को ऐसा न करने का सुझाव दिया और बताया कि इससे अनर्थ हो जाएगा और अपयश मिलेगा। ब्राह्मणों की सलाह मानना ही रानी दुर्गावती के लिए भारी पड़ा।
दुर्भाग्य देखिये उसी रात गौर और नर्मदा नदियों में बाढ आ गयी और जिससे सेना दोनों नदियों के बीच की घाटी में फंस गयी और एकमात्र बाहर निकले का रास्ता भी मुगल सेना के अधिकार में आ गया था। अगर बाढ़ न आती तो नरई नाके के उस पार ऊंचे नागा पहाड़ों पर रानी और उनकी सेना के बच निकलने का सुरक्षित रास्ता था(राम भरोस अग्रवाल 2011)।
24 जून 1564 की सुबह आसफ़ खाँ अपने तोपखाने के साथ नरई आ गया और दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। रानी अपने सबसे ऊंचे हाथी सरमन पर होने के कारण आसानी से दुश्मन की नज़र में आ गयी थीं और बड़ी आसानी से दुश्मन के तीरबाजों के निशाने पे थीं। दोनों सेनाओं का युद्ध चल रहा था और रानी की सेना मुगलों को दोपहर तक पीछे धकेल रही थी तभी एक तीर रानी की दायी कनपटी पर लगा जिसे रानी ने तुरंत निकाल कर फेंका लेकिन तीर का नोक रानी के शरीर के अंदर ही रह गया। फिर दूसरा तीर भी रानी के गर्दन में आ लगा। काफी खून बहने से रानी मूर्छित हो गयी और हाथी से नीचे गिर गयी। महावत आधार सिंह उन्हे बाहर लेकर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि तभी रानी को थोड़ा होश आया, उन्होने महावत आधार सिंह से कहा की वो उन्हे मार दे लेकिन वह तैयार नहीं हुआ फिर रानी ने अपनी ही कटार निकाली और अपने दोनों हाथों से पकड़कर एक ही झटके में अपने सीने में उतार ली और अपने जीवन का अंत कर लिया। वो किसी भी हालत में मुगलों के हाथ नहीं लगना चाहती थी और जिल्लत की ज़िंदगी नहीं जीना चाहती थी। आज भी नरई नाले के पास रानी दुर्गावती और उनके हाथी सरमन की समाधियाँ बनी हैं जहां पर प्रतिवर्ष जनवरी में मेला लगता है।
नरई का युद्ध जीतने के बाद आसफ़ खाँ के हाथ एक हज़ार हाथी और ढेर सारी संपत्ति हाथ लगी। युद्ध जीतने के बाद आसफ खाँ गढ़ा में ही बरसात रुकने का इंतज़ार किया और दो महीने बाद उसने रानी के मुख्य किले चौरागढ़ पर आक्रमण किया जहां रानी का खजाना और रानी की होने वाली बहू और अन्य परिवार के सदस्य रहते थे। चौरागढ़ के किले पर रानी दुर्गावती के बेटे वीर नारायण ने मुगलों के सेना से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की और महल की औरतों ने जौहर किया। चौरागढ़ जीतने के बाद आसफ खाँ के हाथ ढेरों संपत्ति, सोने चांदी के गहने एवं सिक्के, जवाहरात और कीमती अशरफ़ियाँ हाथ लगी।
इस तरह गोंडवाना के महान साम्राज्य का अंत हुआ और धीरे उनके सभी 52 गढ़ और किले मुगलों के हाथ में चले गए। इस वर्ष 24 जून को वीरांगना रानी दुर्गावती का 455वां बलिदान दिवस है। अपने सम्मान और साम्राज्य की सुरक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाली महान वीरांगना रानी दुर्गावती मड़ावी को सादर श्रद्धांजलि और सेवा जोहर।
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