gondwna ka veerpurush sahid birsha munda (jharkhand)

                                                     गोंडवाना का आग वीर बिरसा मुंडा 
भारत की आदिवासी जनजीवन और उनकी समस्याओ संघर्षो एवं क्रन्तिकारी चेतना पर आधारित जनजाति  के नायक बिरसा मुंडा और उनके नेतृत्व में हुए उलगलन समाजिक क्रांति की मर्मस्पर्श विद्रोह की कहानी
शोसण -दमन जुल्म -ज्यादती की घटनाए प्रत्येक मानव को सोचने के लिए मजबूर करती है ,चुटु और नगुनाम के दो भाई अपने जीविका की खोज में रांची के लिए प्रस्थान किये और पास के ही गॉव उलिहातू  जाकर रहने लगे।  अपनी जीविका पालन करते हुए उसी गांव में ही उन्होंने अपनी समाजिक  अनुसार जीवन साथी बनाया कुछ समय बाद इन्ही परिवार में राका लका से लकारी मुंडा पैदा हुआ। समय गुजर गया और लकारी बड़ा हुआ समाजिक परम्पराओ के अनुकूल लकारी मुंडा ने सादी की भविष्य में जिनके तीन पुत्र हुए कानू ,सुगना ,पासनामुण्डा इस में से मद्य पुत्र का नाम सुगना मुंडा रखा गया। समकालीन परिस्थितियों में जीवन की परिवारक गाड़ी को खींचते हुए सभी अपने -अपने बच्चो का पालन -पोषण करते रहे। कुछ समय उपरांत आलू -भालू ग्राम के दिवाहर मुंडा की लड़की करमि से सुगना मुंडा का विवाह हो गया। कर्मी से सुगना मुंडा की पांच संताने हुई जिसमे तीन पुत्र कोमता मुंडा बिरसा तथा कोणु और दो पुत्रिया दासवीर एवं चंपा नाम  जनि जाती थी  खोज में निकले सुगना मुंडा ने अपने गांव उलिहातू को छोड़कर रांची छेत्र के बंबा ग्राम में १५ नवम्बर १८७५ को बिरसा मुंडा का जन्म हुआ। जीवन जीवन की गरीबी और पर भी अनदिवसीयो की अन्यआय और अत्याचारों से पीड़ित होकर बिरसा मुंडा के पिता सुगना मुंडा  विसम  परस्थितियो के साये में दुखी होकर अपने आत्मा स्वाभिमान के लिए  बदल किये। समकालीन भारत में सुद्र आदिवासियों के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद थे सामंतशाही ठेकेदार एवं जमीदारो दवरा विविध तरह के शोषण की प्रक्रिया वर्तमान में थी बालक बिरसा मुंडा की प्रारम्भिक  शिक्षा ननिहाल में आयुमातु के पास सलगा नामक ग्राम में हुई जयपाल नाग के द्वारा सन १८८१से १८१६तक जर्मन मिशन स्कूल में सन १८८६से १८९०तक अपनी छोटी मौसी जॉनी के पास रहकर चाईबासा में विधा अध्ययन करते रहे। अनदिवसीयो के दबाओ के कारण  अपने बच्चे को आगे नहीं पड़ा पाए इस से अधिक, न तो इतिहास के पाठ्यपुस्तकों में लिखा जाता है, और न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा जाता है. हर विद्यार्थी के लिए बिरसा का इतना लघु परिचय, काफी मान लिया जाता है.
मगर क्या इतनी सी जानकारी दे कर हम बिरसा के महान व्यक्तित्व के साथ अन्याय नहीं कर रहे. बिरसा का वह व्यक्तित्व जो चमकता है उन लोकगीतों में, जिन्हें खूंटी से ले कर चक्रधरपुर तथा ओड़िसा के सुंदरगढ़ तक आज भी याद किया जाता है.
जन्म हुआ वीरवार को अतः नाम रखा गया बिरसा. बचपन अन्य मुंडा बच्चों की तरह खेतों में काम करते हुए तथा नदी किनारे बाँसुरी बजाते हुए बीता. पढ़ाई के लिए चाईबासा के गोस्सनर स्कूल में दाखिला मिला जहां धर्मांतरण अनिवार्य था. धर्म बदलने पर नाम रखा गया डेविड पूर्ति (दाऊद). एक दिन पादरी से उलझ पड़ा जब पादरी ने कहा कि हमने धर्मांतरण के बाद तुम आदिवासियों के लिए स्वर्ग का द्वार खोल दिया है. लड़के ने पलट कर कहा कि हमारे अच्छे खासे स्वर्ग को लूट कर हमें नरक जैसी ज़िन्दगी देने के बाद , कौन सा स्वर्ग देने वाले हो? वहां जो अंग्रेजों से मोह भंग हुआ तो बढ़ता हो गया. इसी बीच फारेस्ट एक्ट के तहत सिंहभूम के जंगलों की बंदोबस्ती कर के सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया. आदिवासी जिन जंगलों में सदियों से मालिक के हैसियत से रहते थे, वहां किरायदार हो गए.रही सही कसर बाहर से आ बसे लकड़ी और बीड़ी पत्ता के ठेकेदारों ने पूरी कर दी. आदिवासी समाज एक ऐसे संक्रमण काल से गुज़र रहा था जहां बिरसा को साफ दिख रहा था कि समय दूर नहीं कि आदिवासी अपनी सारी धरोहर खो कर मात्र एक मजदूर बन के रहने वाला है.
बिरसा ने दो तरफा फार्मूला निकाला. उसने पहले तो आदिवासियों को उनकी अपनी संस्कृति पर गर्व और स्वाभिमान करना सिखाया.शराब, जुआ आदि के बुरे असर को समझाया. ईसाई धर्म का प्रलोभन रोकने के लिए कई प्रयास किये. उसके प्रवचन सुनने के लिए लोग दूर दूर से आने लगे. जैसा गठीला शरीर , उनती ही मधुर वाणी और सरल व्यक्तित्व, किसी देवता की तरह .लोगों में इतना गहरा असर होता था इस 20 साल के लड़के की वाणी का,कि वो किसी पैगम्बर से कम नहीं लगता था उन्हें.
जब लोगों में अपनी आदिवासी अस्मिता को ले कर आत्मविस्वास और स्वाभिमान भरा,तब बिरसा ने “उलगुलान” यानि कि विद्रोह का आह्वान किया और कई जगहों पर अंग्रेज़ सरकार तथा उनके ठेकेदारों पर एक साथ हमला शुरू हुआ. सरकार ने काफी निर्दयता से इस विद्रोह को कुचलने का प्रयास किया. बिरसा के बारे में सूचना देने के एवज में भारी नकद का ऐलान हुआ.अंततः बिरसा मुंडा अपने ही एक साथी की ग़द्दारी से गिरफ्तार किए गए और जेल में ही उनकी मृत्य हो गई. अपनी अल्प आयु में लोगों के अंदर विश्वास और शक्ति का संचार करते हुए उन्हें अपनी धरती को बचाने का संदेश दिया . सही मायने में “धरती-आबा” था बिरसा.
जिसने अपने जीवन के मात्र 25 वसंत देखे, जो कि अपने लोगों में “सिंह बोंगा” यानी स्वयं भगवान सूर्य का रूप माना जाता था, उसे समाज में क्या स्थान मिला वह देख कर बड़ा अजीब लगता है. लौह पुरुष लिखिए तो गूगल में आती है पटेल की तस्वीर, बापू लिखिए तो आती है गांधी की तस्वीर, गुरुदेव लिखिए तो आती है टैगोर की तसवीर.. मगर , धरती आबा लिखने पर आती है धरती आबा सुपरफास्ट एक्सप्रेस ट्रेन की तस्वीर ! उस व्यक्तित्व को हमने मात्र एक “आदिवासी” नेता घोषित कर के बिल्कुल सीमित कर दिया. जैसा कि समाज ने मान लिया हो कि“गैर-आदिवासियों” को क्या सरोकार है बिरसा के इतिहास से


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