Bhil Darshan: An Introductionभील दर्शन : एक परिचय

वर्ष 1916 में ब्रिटिश प्रशासक आर्थर हेनरी एडेनब्रुक सिमकोक्स ने अपनी किताब ए मेमॉयर ऑफ़ द खानदेश भील कॉर्प्स, 1825-1891 में लिखा, “भील निस्संदेह उन ट्राइब्स में से एक हैं, जिन्होंने आर्यन के आक्रमण से पहले प्रायद्वीपीय भारत में निवास किया था।” हम यह भली भाँति जानते हैं कि भील लोक भारतभूमि के आदिवासी समुदाय है। आदिवासी से आशय है कि आदिकाल से रहने वाला समुदाय या इंडिजेनस/एबोरिजिनल।  
भीलों के ऐतिहासिक, दार्शनिक ज्ञान हेतु मैंने भीलों के अग्रलिखित निवास क्षेत्रों का आंशिक भ्रमण कर अवलोकन किया और पाया कि आदिकाल से लेकर आज तक जिस-जिस क्षेत्र में भील समुदाय के लोग निवास कर रहे हैं, वह क्षेत्र भारत के चार बड़े राज्यों में बड़े पैमाने पर फैला हुआ है। मध्यप्रदेश में बीस से अधिक जिलों में भील समुदाय के लोग रहते हैं, जिसमें प्रमुख जिले – झाबुआ, अलिराजपुर, धार, बड़वानी, खरगोन, रतलाम हैं। इसी प्रकार भील समुदाय के लोग महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि राज्यों में सदियों से प्रकृति प्रदत्त जीवन शैली के साथ आज भी निवास कर रहे हैं। इन्हीं राज्यों में भीलों के कई उप समुदाय भी रहते है , जिनके नाम हैं – बारेला, भिलाला, तड़वी, वसावा, नायक, पटलिया, मानकर, मीणा आदि। ये सभी उप समुदायों के रीति -रिवाज, परम्पराएं, संस्कृति, कला, साहित्य आदि में बहुत साम्यता है।
स्वतंत्रता संग्राम में हजारों की तादाद में भील समुदाय के योद्धा शहीद हुये है। जिन में से प्रमुख योद्धाओं के नाम है- टंटया भील, भीमानायक, खाज्या नायक ,कालीबाई भील, सुरसी बाई नायक गुल्या नायक, भागोजी नाईक आदि।
भील दर्शन हेतु भीलों की संस्कृति से सम्बंधित भीलों का इतिहास, उनकी भाषा, उनके लोक देवता, गाथाएं, पारंपरिक वाद्य यंत्र जैसी विशिष्टताओं का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
भीलों के ऐतिहासिक दर्शन से ज्ञात होता है कि भीलों का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विशिष्ट योगदान रहा है। यह भी सत्य है कि स्वतंत्रता संग्राम से पहले भी भीलों का इतिहास गौरवान्वित करने वाला रहा है । महाराणा प्रताप को पहचान उस समय मिली थी, जिस समय भील लड़ाकू पूंजा भील ने अपनी विशाल भीली सेना का नेतृत्व करते हुए मुगलों से युद्ध किया और महाराणा प्रताप सिंह का सहयोग किया। बाद में महाराणा प्रताप सिंह को युद्ध में सफलता मिली । इस आधार पर महाराणा प्रताप सिंह की मां ने योद्धा पूंजा भील को अपना दूसरा बेटा मानते हुए उसे ‘राणा पूंजा भील’ कहा था।
हमने साहित्य या इतिहास में यह पढा है कि महाराणा प्रताप सिंह मुगलों से युद्ध में पराजित होने पर राजस्थान के जंगलों में घांस-फूस की रोटी खाकर लम्बे समय तक जीवित रहे। साहित्य और इतिहास के विद्वानों ने स्वयं की प्रशंसा के लिये यह गलत तर्क दे दिया । सही तथ्य यह है कि मनुष्य कभी भी घांस-फूस नहीं खाता है। घास- फूस की रोटी बनती भी नहीं है। उस समय भी भील समुदाय के लोगों ने ही महाराणा प्रताप सिंह को लावरिया, तितरिया, सेसल्या आदि का शिकार किया और उस शिकार को भूंजकर उन्हें खिलाया और लम्बे समय तक उन्हें मुगलों से छिपाकर जीवित रखा। यह सच है कि सदियों से असहाय मनुष्यों की सहायता करना भीलों की संस्कृति रही है। अर्थात यह सत्य है कि महाराणा प्रताप सिंह को भीलों ने उस समय जंगल में शरण दी थी।
स्वतंत्रता संग्राम में हजारों की तादाद में भील समुदाय के योद्धा शहीद हुये है। जिन में से प्रमुख योद्धाओं के नाम है- टंटया भील, भीमानायक, खाज्या नायक ,कालीबाई भील, सुरसी बाई नायक गुल्या नायक, भागोजी नाईक आदि।
उपरोक्त संघर्षों के साथ ही भीली भाषा का भी एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। भील शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? इस तथ्य से सम्बंधित भीलांचल क्षेत्र के कई भील समुदाय के बुजुर्ग एवं जानकारों से चर्चा करने पर ज्ञात हुआ कि “भील तीर-कमान धारण करने वाले आदिवासी समुदाय हैं। भीली भाषा में तीर को बीलखा (बहुवचन) या बीलखी (एकवचन) कहा जाता है । इस आधार पर यह प्रथम तर्क है कि ‘बीलखा’ शब्द से ही ‘भील’ शब्द प्रचलित हुआ है। वर्तमान में यह शब्द भील समुदाय के लोगों को साहसी और कभी न समर्पण करने वाले आदिवासी समुदाय होने का परिचय देता है।”[1]
भील-भिलाले और बारेला उप-समुदाय के लोग एकजुट होने को भीली बोली में “भेला होणा” कहते हैं। भील समुदाय के लोग एकत्रित होकर ही समाज की संस्कृति और आदिम सभ्यता का निर्वाह सदियों से करते आये हैं। इस आधार से यह भी हो सकता है कि “भेला होणा” शब्द बाद में भील समुदाय की पहचान बनी। इसी आधार पर द्वितीय तर्क यह है कि भील समुदाय के लोग गैर आदिवासियों के सम्मुख या दूसरे आदिवासी समुदाय के सम्मुख स्वयं को कहते है कि “मैं भीलड़ा हूँ” या “हामू भीलड़ा छे” अर्थात हम भील लोग हैं।”[2] इस कथन से आशय है कि भील, कभी हार नहीं मानने वाले, आदिवासी समुदाय के साहसी लोग हैं।
यह एक भ्रांति ही है कि भीलों का नाम आदिकाल में निषाद रहा है। वेदों में भीलों के साथ- साथ अन्य आदिवासियों को भी निषाद, निसाचर, राक्षस, असुर, वनमानुष, मायावी आदि शाब्दिक नामों की अमानवीय दृष्टि से सम्बोधित किया गया। “मायावी” शब्द से आशय यह होता है कि आदिवासी लोग तंत्र मंत्र के जानकार हैं, वे लोग विज्ञान और तकनीकी को जानते हैं। भीली भाषा के तंत्र -मंत्र बहुत शक्तिशाली माने जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि भीमानायक के शरीर पर अंग्रेजों की बंदुक की गोलियों का कोई असर नहीं होता था। वह अपने तंत्र- मंत्र से बंदुक की गोलियों को बेअसर कर देते थे। दूसरा तथ्य प्रत्यक्ष अवलोकन में पाया कि नीमच जिले के भीलों द्वारा अपनी भीली भाषा के तंत्र- मंत्र से मधु मख्खियों के काटने से उन्हें रोक दिया और पेड़ पर चढ़ कर सभी मधु मख्खियों को अपने हाथों से थैले में भरकर जंगल में छोड़ दिया गया। भीलांचल के विभिन्न भीलों के गाँवों में भ्रमण में पाया कि भीलों की भाषा समृद्ध भाषा है। सुबह से लेकर सायं तक उनमें लोक व्यवहार के लिए उनके पास भीली भाषा के ढेरों शब्द हैं। यह भी पाया गया कि उनके त्योहारों और संस्कारों से सम्बंधित भीली भाषा के कई शब्द भण्डार उनके पास मौखिक साहित्य के रूप में उपलब्ध हैं। जिसका वे समय-समय पर बोलचाल में उपयोग करते हैं।
भीलों के पारंपरिक वाद्य यंत्रों से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, उन्हीं के माध्यम से लोग अपने पूर्वजों को उनके त्योहारों के लिए आमंत्रित करते हैं। जंगलों में भील ग्वाले आज भी वाद्ययंत्र की तरंगों के माध्यम से अपने जानवरों को बुलाते हैं और जानवर भी उनके पीछे दौड़ते चले जाते हैं। अतः यह सत्य है कि वैज्ञानिकों से पहले आदिवासियों ने तरंगों को महसूस किया था।
भीलों की विश्वास प्रणाली में लोक देवताओं से जुड़ी भी कई लोक कथाएं प्रचलित हैं। उनके लोक देवता कोई और नहीं उनके पूर्वज अर्थात उनके पुरखे होते हैं। जैसे-
धारण”: भीलों के प्रत्येक मकानों में उनकी कुल देवी (या ‘धारण’) स्थापित की जाती हैं। धारण की पूजा को ही भील समुदाय के लोग कुलदेवी की पूजा करना कहते हैं। यह भीलों की लोक देवता मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि जब से भीलों की उत्पत्ति हुई है, तब से (धारण) कुलदेवी की प्रतिमा उनके मकानों में स्थापित है। उनके मकानों में यह धारण (कुल देवता) भीलों का पूजा स्थल होता है। विवाह के आयोजन में धारण की विशिष्ट पूजा को भील समुदाय के लोग घिरसेरी पूजना कहते हैं।
बापदेव”: भीलों के गांवों में आदिकाल से उनके लोक देवता बापदेव स्थापित हैं। भीली भाषा में बापदेव को बाबूढा कहा जाता है। ‘बाबूढा’ शब्द का अर्थ है – बूढ़े-बूढ़े बाप दादाओं के दादा। इस स्थान पर भील लोग अपने पुरखों को याद करते हैं, महुएं की दारू तड़पते हैं। भीलों में विवाह आयोजन में भी बापदेव की विशेष पूजा की जाती है।
“राणी काजल माता”: ऐसा माना जाता है कि भीलों के निवास क्षेत्र के समीप ऊंची-ऊंची पहाड़ियों पर भीलों के सभी गांवों में सदियों से राणी काजल माता की प्रतिमाएँ स्थापित है। यह भी भीलों की लोक देवता है। शोध कार्य से ज्ञात हुआ कि वर्षा ऋतु में सूखा पड़ने की स्थिति में भीलों द्वारा अपनी लोक देवी रानी काजल माता की पूजा करते हुए गायणा गाते है, जिसे हिन्दी में गाथा कहा जाता है।
“गुहा बाबा”: गुहा बाबा को भील समुदाय के लोग पशुओं के लोक देवता कहते हैं। यह ज्ञात हुआ है कि भीलों में दीवाली को पशुओं का पर्व माना जाता हैं। इस अवसर पर वे अपने-अपने पशुओं को गुहा बाबा की परिक्रमा करवाते हैं और गुहा बाबा से विनती करते हैं कि वह भीलों के पशुओं को सुखी और निरोग बनाए रखें।
“सात माताएं”: सात माताएं भी भीलों की लोक देवता मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि उनके गांव में किसी प्रकार की बीमारी को रोकने का कार्य सात माताएँ करती है। प्राकृतिक प्रकोप से सम्बंधित बिमारियों के लिए भीलों में सात माताओं की पूजा की जाती है और मन्नत ली जाती हैं।[3] इस आधार पर यह सत्य है कि भीलों में अपने लोक देवताओं के प्रति अटूट विश्वास होता है।
भीलों के इतिहास और संस्कृति मुख्य रूप से उनके लोक गीतों में उपस्थित है। भीलों द्वारा प्रमुख रूप से जो गायणा (गाथाएं) गाया जाता है, उसमें से राणी काजल माता, झाड़- फूंक, बड़वा ख्याल, पिठौरा बाबा, नवाई पर्व आदि हैं। सभी गायणा में भीलों की विशिष्ट संस्कृति का परिचय दिखाई देता है। उनकी विशिष्टता यह है कि उनके द्वारा जो गाथाएं गाई जाती है वह लिखित रूप में नहीं हैं। वाचिक रूप में भीलों के गायणा आज भी जीवित हैं।
यह देखा जा सकता है कि पढ़े लिखे व्यक्ति से अधिक प्रभावी रूप से गायणे को निरक्षर भील लोग गाते हैं। उनके सांस्कृतिक व्यक्तित्व को देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती है। भीलों की संस्कृति ही इतनी समृद्ध है कि भील अपनी भाषा में गीत गाते हैं, नाचते जाते है। भीलों द्वारा गायणा का आयोजन ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण प्राणियों के हित में गाये जाते है। जीव उत्पत्ति की अवधारणा अर्थात परिकल्पनाओं से लेकर वर्तमान समय तक को मौखिक रूप से गायणा में प्रस्तुत किया जाता है। जो व्यक्ति यह कथा गाकर सुनाता है, उसके गीत को ढाक वादन के साथ गायणा कहते हैं। इस गायणे पर जो बड़वा नाचते हुये नृत्य करता है, उसे बड़वा ख्याल की गाथा भी कहा जाता है। जिन्हें गायणा की सम्पूर्ण मौखिक जानकारी होती है। वे समूह में ढाक (डमरू के आकार का वादय यंत्र) बजाकर गायणा के गीत गाते है और जब तक गायणा के प्रारंभ से लेकर उसके आखिरी तक गाया जाता है। गायणा के समय बीच-बीच में बड़वा को ढाक बजाकर और गीत गाकर रात भर नचाते हैं।[4]
भीलों के पारंपरिक वाद्य यंत्रों में ढाक (डमरूनुमा ), पावलु ,पिया , बाँसुरी आदि प्रमुख हैं। इन वाद्ययंत्र की मधुर तरंगें पृथ्वी के सम्पूर्ण जीव सुनते और महसूस करते हैं। इन वाद्य यंत्रों से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, उन्हीं के माध्यम से भील समुदाय के लोग अपने पूर्वजों को उनके त्योहारों के लिए आमंत्रित करते हैं। जंगलों में भील ग्वाले आज भी वाद्ययंत्र की तरंगों के माध्यम से अपने जानवरों को बुलाते हैं और जानवर भी उनके पीछे दौड़ते चले जाते हैं। अतः यह सत्य है कि वैज्ञानिकों से पहले आदिवासियों ने तरंगों को महसूस किया था। भीलों की पूजा पद्धति पूर्ण रूप से प्रकृति को समर्पित होती है। किसी भी सांस्कृतिक आयोजनों के शुरूआत में वे दारू को तरपते हुये कहते हैं कि “हे! चाँद, सूरज, आग, हवा, पानी, धरती, अन्न दाणा और पुर्खो की आत्माओं को हम याद करते है।”[5] ऐसा कहते हुए धीरे -धीरे महुआ की दारु की बुँदे धरती पर गिराते है।
इस तरह, भील समुदाय के विभिन्न ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पहलुओं से ज्ञात होता है कि भील दर्शन एक संपन्न रूप में आज भी जीवित है। उनका साहित्य मौखिक रूप से उनके पास है और यही मौखिक परम्परा उनकी संस्कृति को जीवित रखने का कार्य कर रही है।


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