Sangeet Samrat Gond Maharaja Chakradhar Singh Porte (Raigad), संगीत सम्राट गोंड महाराजा चक्रधर सिंह पोर्ते (रायगढ़ )
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संगीत सम्राट चक्रधरसिंह पोर्ते
संगीत सम्राट गोंड महाराजा चक्रधर सिंह पोर्ते (रायगढ़ )
गोंड महाराजा चक्रधर सिंह पोर्ते.
गोंड महाराजा चक्रधर सिंह पोर्ते का जन्म 19 अगस्त, 1905 को रायगढ़ रियासत में हुआ था । नन्हें महाराज के नाम से सुपरिचित, आपको संगीत विरासत में मिला । उन दिनों रायगढ़ रियासत में देश के प्रख्यात संगीतज्ञों का नियमित आना-जाना होता था । पारखी संगीतज्ञों के सान्निध्य में शास्त्रीय संगीत के प्रति आपकी अभिरुचि जागी । राजकुमार कॉलेज, रायपुर में अध्ययन के दौरान आपके बड़े भाई के देहावसान के बाद रायगढ़ रियासत का भार आकस्मिक रुप से आपके कंधों पर आ गया ।
1924 में राज्याभिषेक के बाद अपनी परोपकारी नीति एवं मृदुभाषिता से रायगढ़ रियासत में शीघ्र अत्यन्त लोकप्रिय हो गए । कला-पारखी के साथ विभिन्न भाषाओं में भी आपकी अच्छी पकड़ थी । कत्थक के लिए आपको खास तौर पर जाना गया .और आपने रायगढ़ कत्थक घराना की नींव रखी.
1924 में राज्याभिषेक के बाद अपनी परोपकारी नीति एवं मृदुभाषिता से रायगढ़ रियासत में शीघ्र अत्यन्त लोकप्रिय हो गए । कला-पारखी के साथ विभिन्न भाषाओं में भी आपकी अच्छी पकड़ थी । कत्थक के लिए आपको खास तौर पर जाना गया .और आपने रायगढ़ कत्थक घराना की नींव रखी.
छत्तीसगढ़ के पूर्वी छोर पर उड़ीसा राज्य की सीमा से लगा जनजाति बाहुल्य जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थित है। दक्षिण पूर्वी रेल लाइन पर बिलासपुर संभागीय मुख्यालय से 133 कि. मी. और राजधानी रायपुर से 253 कि. मी. की दूरी पर स्थित यह नगर उड़ीसा और बिहार प्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य, नदी-नाले, पर्वत श्रृंखला और पुरातात्विक सम्पदाएं पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। रायगढ़ जिले का निर्माण 01 जनवरी 1947 को ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी के पूर्व पांच रियासतों क्रमश: रायगढ़, सारंगढ़, जशपुर, उदयपुर और सक्ती को मिलाकर किया गया था। बाद में सक्ती रियासत को बिलासपुर जिले में सम्मिलित किया गया। केलो, ईब और मांड इस जिले की प्रमुख नदियां है। इन पहाड़ियों में प्रागैतिहासिक काल के भित्ति चित्र सुरक्षित हैं। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद बहुत सी रियासतें इतिहास के पन्नों में कैद होकर गुमनामी के अंधेरे में खो गये। लेकिन रायगढ़ रियासत के गोंड महाराजा चक्रधरसिंह पोर्ते का नाम भारतीय संगीत कला और साहित्य के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। राजसी ऐश्वर्य, भोग विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, नृत्यकला और साहित्य को समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्हें कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन रहना पड़ा। लेकिन 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे भारत में फैल गयी। यहां के निष्णात् कलाकार अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिताओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर पुरस्कृत होते रहे। इससे पूरे देश में गोंड महाराजा चक्रधर सिंह पोर्ते की ख्याति फैल गयी।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो अनेक राजघरानों के उत्थान और पतन का प्रभाव कला, संगीत और कलाकार के जीवन में दृष्टिगोचर होता है। संपूर्ण संगीत जगत जिस पर गौरव कर सके ऐसे महान कलाकार, संगीत प्रेमी, गुणग्राही राजाओं से छत्तीसगढ़ की धरती समृद्ध है लेकिन रायगढ़ के गोंड महाराजा चक्रधरसिंह पोर्ते ने जयपुर, बनारस और लखनऊ कत्थक घराना की तर्ज में ''रायगढ़ कत्थक घराना`` बनाकर कत्थक नृत्य की एक नई शैली विकसित कर ''संगीत सम्राट`` की उपाधि से विभूषित होकर रायगढ़ रियासत व छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किये। संगीतानुरागी और कला पारखी तो वे थे ही, एक अच्छे तबला वादक और सितार वादक व विलक्षण तांडव नृत्य में भी निपुण थे। उन्होंने संगीत और साहित्य की दुर्लभ पुस्तकें लिखीं हैं।
इन्होने कला और संगीत से संबंधित विश्व का सबसे विशाल 37 किलो वजनी साहित्य लिखा है.इन्हें संगीत सम्राट नहीं विश्व संगीत सम्राट की उपाधि प्राप्त है। इंगलैंड मेँ इनके नाम पर फिल्म बन चुकी है पर भारत के फिल्मकारों को इनका इतिहास तक मालूम नहीं इनके पुर्वज महाराजा भूपदेव को 19वीँ सदी मेँ अंग्रेजो ने"वीर बहादुर"के उपाधि से नवाजा है।इन्होने अपने नाम पर एक गाँव भूपदेवपुर भी बसाया जो रायगढ-कोरबा मार्ग पर स्थित है। गोंड महाराजा चक्रधर को ताल तोय निधि के लिए नोबेल पुरस्कार मिलना तय था उनका यह विशाल ग्रंथ अंग्रेजों के संग्रहालय में था पर षडयंत्र के तहत व ब्रिटिशयों की राजनीतिक मंशा के चलते उन्हे नोबेल पुरुष्कार नही दिया गया.
7 अक्टूबर 1947 को रायगढ़ में आपका देहावसान हुआ । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में कला एवं संगीत के लिए राजा चक्रधर सम्मान स्थापित किया है । गोंडवाना के महान महाराज चक्रधर सिंह पोर्ते जैसे विलक्षण प्रतिभा के धनी को इतिहास के पन्नो में दफन नही होने देंगे.
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो अनेक राजघरानों के उत्थान और पतन का प्रभाव कला, संगीत और कलाकार के जीवन में दृष्टिगोचर होता है। संपूर्ण संगीत जगत जिस पर गौरव कर सके ऐसे महान कलाकार, संगीत प्रेमी, गुणग्राही राजाओं से छत्तीसगढ़ की धरती समृद्ध है लेकिन रायगढ़ के गोंड महाराजा चक्रधरसिंह पोर्ते ने जयपुर, बनारस और लखनऊ कत्थक घराना की तर्ज में ''रायगढ़ कत्थक घराना`` बनाकर कत्थक नृत्य की एक नई शैली विकसित कर ''संगीत सम्राट`` की उपाधि से विभूषित होकर रायगढ़ रियासत व छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किये। संगीतानुरागी और कला पारखी तो वे थे ही, एक अच्छे तबला वादक और सितार वादक व विलक्षण तांडव नृत्य में भी निपुण थे। उन्होंने संगीत और साहित्य की दुर्लभ पुस्तकें लिखीं हैं।
इन्होने कला और संगीत से संबंधित विश्व का सबसे विशाल 37 किलो वजनी साहित्य लिखा है.इन्हें संगीत सम्राट नहीं विश्व संगीत सम्राट की उपाधि प्राप्त है। इंगलैंड मेँ इनके नाम पर फिल्म बन चुकी है पर भारत के फिल्मकारों को इनका इतिहास तक मालूम नहीं इनके पुर्वज महाराजा भूपदेव को 19वीँ सदी मेँ अंग्रेजो ने"वीर बहादुर"के उपाधि से नवाजा है।इन्होने अपने नाम पर एक गाँव भूपदेवपुर भी बसाया जो रायगढ-कोरबा मार्ग पर स्थित है। गोंड महाराजा चक्रधर को ताल तोय निधि के लिए नोबेल पुरस्कार मिलना तय था उनका यह विशाल ग्रंथ अंग्रेजों के संग्रहालय में था पर षडयंत्र के तहत व ब्रिटिशयों की राजनीतिक मंशा के चलते उन्हे नोबेल पुरुष्कार नही दिया गया.
7 अक्टूबर 1947 को रायगढ़ में आपका देहावसान हुआ । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में कला एवं संगीत के लिए राजा चक्रधर सम्मान स्थापित किया है । गोंडवाना के महान महाराज चक्रधर सिंह पोर्ते जैसे विलक्षण प्रतिभा के धनी को इतिहास के पन्नो में दफन नही होने देंगे.
जय सेवा जय गोंडवाना
प्राचीन काल से आज तक की लंबी काल यात्रा में भारतीय संगीत और कला ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो अनेक राजघरानों के उत्थान और पतन का प्रभाव कला, संगीत और कलाकार के जीवन में दृष्टिगोचर होता है। संपूर्ण संगीत जगत जिस पर गौरव कर सके ऐसे महान कलाकार, संगीत प्रेमी, गुणग्राही राजाओं से छत्तीसगढ़ की धरती समृद्ध है लेकिन रायगढ़ के राजा चक्रधरसिंह ने जयपुर, बनारस और लखनऊ कत्थक घराना की तर्ज में ''रायगढ़ कत्थक घराना`` बनाकर कत्थक नृत्य की एक नई शैली विकसित कर ''संगीत सम्राट`` की उपाधि से विभूषित होकर छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किये। संगीतानुरागी और कला पारखी तो वे थे ही, एक अच्छे तबला वादक और सितार वादक भी थे। उन्होंने संगीत और साहित्य की दुर्लभ पुस्तकें लिखीं हैं। पूरे प्रदेश ही नहीं वरन देश में रायगढ़ के गणेश मेला उत्सव से छत्तीसगढ़ की अलग पहचान बनी है। इस उत्सव में नृत्य, संगीत कला और साहित्य का अद्भुत समागम होता था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ गौरव में रायगढ़ को कुछ इस प्रकार परिभाषित करते हैं :-
महाराज हैं देव चक्रधर सिंह बड़भागी।
नृत्य वाद्य संगीत ग्रंथ रचना अनुरागी।
केलो सरितापुरी रायगढ़ की बन पायल।
बजती है अति मधुर मंद स्वर से प्रतिपल पल।
जल कल है, सुन्दर महल है निशि में विपुल द्युतिधवल।
है ग्राम रायगढ़ राज्य के, सुखी संपदा युत सकल ।।
छत्तीसगढ़ के पूर्वी छोर पर उड़ीसा राज्य की सीमा से लगा आदिवासी बाहुल्य जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थित है। दक्षिण पूर्वी रेल लाइन पर बिलासपुर संभागीय मुख्यालय से १३३ कि. मी. और राजधानी रायपुर से २५३ कि. मी. की दूरी पर स्थित यह नगर उड़ीसा और बिहार प्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य, नदी-नाले, पर्वत श्रृंखला और पुरातात्विक सम्पदाएं पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। रायगढ़ जिले का निर्माण ०१ जनवरी १९४८ को ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी के पूर्व पांच रियासतों क्रमश: रायगढ़, सारंगढ़, जशपुर, उदयपुर और सक्ती को मिलाकर किया गया था। बाद में सक्ती रियासत को बिलासपुर जिले में सम्मिलित किया गया। केलो, ईब और मांड इस जिले की प्रमुख नदियां है। इन पहाड़ियों में प्रागैतिहासिक काल के भित्ति चित्र सुरक्षित हैं। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद बहुत सी रियासतें इतिहास के पन्नों में कैद होकर गुमनामी के अंधेरे में खो गये। लेकिन रायगढ़ रियासत के राजा चक्रधरसिंह का नाम भारतीय संगीत कला और साहित्य के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। राजसी ऐश्वर्य, भोग विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, नृत्यकला और साहित्य को समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्हें कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन रहना पड़ा। लेकिन २० वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे भारत में फैल गयी। यहां के निष्णात् कलाकार अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिताओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर पुरस्कृत होते रहे। इससे पूरे देश में छत्तीसगढ़ जैसे सुदूर वनांचल राज्य की ख्याति फैल गयी।
राजा मदनसिंह रायगढ़ रियासत के जन्मदाता थे। राजा घनश्याम सिंह संगीत के प्रेमी ही नहीं बल्कि उनके पोषक और संरक्षक भी थे। भारतेन्दु कालीन साहित्यकार पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय की साहित्यिक प्रतिभा से प्रसन्न होकर राजा भूपदेवसिंह ने दो गांव क्रमश: टांडापुर और परसापाली की मालगुजारी प्रदान किया था। वे स्वयं लिखते हैं :-
मध्यप्रदेश सुमधि यह देश ललाम
रायगढ़ सुराजधानी विदित सुनाम।
इहां अधिप श्री नृपसुरसिंह सुजान
दान मान विधि जानत अति गुणमान।
नारायण लिखि सिंह मिलावहु आनि
तो नृप भ्राता नाम सुलीजै जानि।
इनके गुण गण हौं कस करौं बखान
विद्यमान सुपूरो तेज निधान।
श्री नृपवर सिंह मुहिं दीन्हें यह दुदू ग्राम
टांडापुर इक परसापाली नाम।।
गणेश मेले की शुरुआत :-
रायगढ़ में ''गणेश मेले`` की शुरुआत कब हुई इसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता। मुझे मेरे घर में रायगढ़ के राजा विश्वनाथ सिंह का ८ सितंबर १९१८ को लिखा एक आमंत्रण पत्र माखनसाव के नाम मिला है जिसमें उन्होंने गणेश मेला उत्सव में सम्मिलित होने का अनुरोध किया गया है। इस परम्परा का निर्वाह राजा भूपदेवसिंह भी करते रहे। पंडित मेदिनी प्रसाद पांडेय ने 'गणपति उत्सव दर्पण' लिखा है। २० पेज की इस प्रकाशित पुस्तिका में पांडेय जी ने गणेश उत्सव के अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों को छंदों में समेटने का प्रयास किया है। गणेश चतुर्थी की तिथि तब स्थायी हो गयी जब कुंवर चक्रधरसिंह का जन्म गणेश चतुर्थी को हुआ। बालक चक्रधरसिंह के जन्म को चिरस्थायी बनाने के लिए 'चक्रधर पुस्तक माला' के प्रकाशन की शुरुआत की थी। इस पुस्तक माला के अंतर्गत पंडित पुरुषोत्तम प्रसाद पांडेय के कुशल संपादन में पंडित अनंतराम पांडेय की रचनाओं का संग्रह 'अनंत लेखावली' के रूप में नटवर प्रेस रायगढ़ से प्रकाशित किया गया था। कहते हैं रायगढ़ रियासत के राजा जुझारसिंह ने अपने शौर्य और पराक्रम से राज्य को सुदृढ़ किया, राजा भूपदेवसिंह ने उसे श्री सम्पन्न किया और राजा चक्रधरसिंह ने उसे संगीत, कला, नृत्य और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में ख्याति दिलायी।
(चक्रधर समारोह की एक झलक)
नान्हे महाराज से चक्रधर सिंह तक का सफर :-
दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत, नृत्य और कला के क्षेत्र में ख्याति यहां बरसों से आयोजित होने वाले गणेश मेला उत्सव में मिली। बाद में यह जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। क्योंकि इस दिन (१९ अगस्त सन् १९०५ को) रायगढ़ के आठवें राजा भूपदेवसिंह के द्वितीय पुत्र रत्न के रूप में चक्रधरसिंह का जन्म हुआ। वे तीन भाई क्रमश: श्री नटवरसिंह, श्री चक्रधरसिंह और श्री बलभद्रसिंह थे। चक्रधरसिंह को सभी ''नान्हे महाराज`` कहते थे। उनका लालन पालन यहां के संगीतमय और साहित्यिक वातावरण में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा रायगढ़ के मोती महल में हुई। आठ वर्ष की आयु में सन् १९१४ में उन्हें रायपुर के राजकुमार कालेज में दाखिल कराया गया। नौ वर्ष तक वहां के कड़े अनुशासन में विद्याध्ययन करने के बाद सन १९२३ में प्रशासनिक ट्रेनिंग के लिए छिंदवाड़ा चले गये। कुशलता पूर्वक वहां की प्रशासनिक ट्रेनिंग पूरा करके रायगढ़ लौटने पर उनका विवाह बिंद्रानवागढ़ के जमींदार की बहन से हुआ। जिनके गर्भ से श्री ललित कुमार सिंह, श्री भानुप्रताप सिंह, मोहिनी देवी और गंधर्वकुमारी देवी का जन्म हुआ। १५ फरवरी १९२४ को राजा नटवरसिंह की असामयिक मृत्यु हो गयी। चूंकि उनका कोई पुत्र नहीं था अत: रानी साहिबा ने चक्रधरसिंह को गोद ले लिया। इस प्रकार श्री चक्रधरसिंह रायगढ़ रियासत की गद्दी पर आसीन हुए। ०४ मार्च सन् १९२९ में सारंगढ़ के राजा जवाहरसिंह की पुत्री कुमारी बसन्तमाला से राजा चक्रधरसिंह का दूसरा विवाह हुआ जिसमें शिवरीनारायण के श्री आत्माराम साव सम्मिलित हुए। मैं उनका वंशज हंू और मुझे इस विवाह का निमंत्रण पत्र मेरे घर में मिला। उनके गर्भ से सन १९३२ में कुंवर सुरेन्द्रकुमार सिंह का जन्म हुआ। उनकी मां का देहांत हो जाने पर राजा चक्रधरसिंह ने कवर्धा के राजा धर्मराजसिंह की बहन से तीसरा विवाह किया जिनसे कोई संतान नहीं हुआ।
(मोती महल रायगढ़)
नृत्य, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में :-
राजा बनने के बाद चक्रधरसिंह राजकीय कार्यों के अतिरिक्त अपना अधिकांश समय संगीत, नृत्य, कला और साहित्य साधना में व्यतीत करने लगे। वे एक उत्कृष्ट तबला वादक, कला पारखी और संगीत प्रेमी थे। यही नहीं बल्कि वे एक अच्छे साहित्यकार भी थे। उन्होंने संगीत के कई अनमोल ग्रंथों, दर्जन भर साहित्यिक और उर्दू काव्य तथा उपन्यास की रचना की। उनके दरबार में केवल कलारत्न ही नहीं बल्कि साहित्य रत्न भी थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री भगवतीचरण वर्मा, पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, श्री रामेश्वर शुक्ल ''अंचल``, डॉ. रामकुमार वर्मा और पं. जानकी बल्लभ शास्त्री को यहां अपनी साहित्यिक प्रतिभा दिखाने और पुरस्कृत होने का सौभाग्य मिला। अंचल के अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार जिनमें पं. अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और ''पद्मश्री`` पं. मुकुटधर पांडेय आदि प्रमुख थे, ने यहां साहित्यिक वातावरण का सृजन किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र रायगढ़ दरबार में दीवान रहे। श्री आनंद मोहन बाजपेयी उनके निजी सचिव और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके पथ प्रदर्शक थे। इनके सान्निध्य में राजा चक्रधर सिंह ने कई पुस्तकों की रचना की। उनमें बैरागढ़िया राजकुमार, अल्कापुरी और मायाचक्र (सभी उपन्यास), रम्यरास, रत्नहार, रत्नमंजूषा (सभी काव्य), काव्य कानन (ब्रज काव्य), जोशे फरहत और निगारे फरहत (उर्दू काव्य) आदि प्रमुख है। इसके अलावा नर्तन सर्वस्वम, तालतोयनिधि, रागरत्नमंजूषा और मुरजपरन पुष्पाकर आदि संगीत की अनमोल कृतियों का उन्होंने सृजन किया है।
रायगढ़ कत्थक घराने के साक्षी :-
जयपुर घराने के पंडित जगन्नाथ प्रसाद पहले गुरू थे जिन्होंने यहां तीन वर्षो तक कत्थक नृत्य की शिक्षा दी। इसके पश्चात् पं. जयलाल सन् १९३० में यहां आये और राजा चक्रधर सिंह के मृत्युपर्यन्त रहे। कत्थक के प्रख्यात् गुरू और लखनऊ घराने से सम्बद्ध पं. कालिकाप्रसाद के तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज यहां बरसों रहे। बिंदादीन महाराज के शिष्य सीताराम जी भी यहां रहे। उस्ताद कादर बख्श, अहमद जान थिरकवा जैसे सुप्रसिद्ध तबला वादक यहां बरसों रहे। इसके अतिरिक्त मुनीर खां, जमाल खां, करामत खां और सादिक हुसैन आदि ने भी तबले की शिक्षा देने रायगढ़ दरबार में आये थे। कत्थक गायन के लिये हाजी मोहम्मद, अनाथ बोस, नन्हें बाबू, धन्नू मिश्रा और नासिर खां भी यहां रहे। इसके अलावा राजा बहादुर ने अपने दरबार में देश-विदेश के चोटी के निष्णात कलाकारों और साहित्यकारों को यहां आमंत्रित करते थे। उनके कुशल निर्देशन में यहां के अनेक बाल कलाकारों को संगीत, नृत्यकला और तबला वादन की शिक्षा मिली और वे देश विदेश में रायगढ दरबार की ख्याति को फैलाये। इनमें कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल की जोड़ी ने कत्थक के क्षेत्र में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे देश में फैलाये। निश्चित रूप से ''रायगढ़ कत्थक घराना`` के निर्माण में इन कलाकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
राजा से शायर :-
बहरहाल, राजा चक्रधर सिंह हिन्दी काव्य में अपना उपनाम ''चक्रप्रिया'' और उर्दू काव्य में ''फरहत'' लिखा करते थे। देखिए उनकी एक कविता :-
लौ लगी जिसने मेरी वो चक्रप्रिया आते नहीं
कोई कह दो कि प्रीतम आये हुये हैं
नैना दरशन को ललचाये हुये है
कहना माने नहीं अकुलाये हुये हैं।
डॉ. ब्रजभूषण सिंह 'आदर्श' के अनुसार-' मध्यप्रदेश में विंध्यप्रदेश के पच्चीसों राजाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने उच्च कोटि की काव्य रचना की है। मध्य काल में इन नरेश कवियों ने भक्ति और रीति कालीन काव्यधारा को संतुष्ट किया है। इनमें रायगढ़ के कला मर्मज्ञ राजा चक्रधर सिंह का नाम अग्रगण्य है। वे आधुनिक युग के कवि, शायर और सुलेखक थे।' कवि के रूप में उनका 'रम्यरास' जिसे वंशस्थ छंदों में लिखा गया है, आज भी लोगों के पास सुरक्षित है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का सरस वर्णन किया गया है। इसमें खड़ी बोली के तत्सम शब्द प्रधान शैली में कविवर हरिओम जी की शैली का प्रभाव दिखाई देता है। पेश है इसकी एक बानगी :-
मुखेद की स्निग्ध, सुधा समेत थी
लिखी हुई विश्व विभूति सी लिए।
शरन्निशा सुन्दर सुन्दरी समा,
अभिन्न संयोग वियोग योगिनी।
विशुद्ध शांति स्फुट थी प्रभामयी
खड़ा हुआ उर्ध्व नभ प्रदेश में,
मृगांक रेखा वषु में प्रसार के
द्विजेश था कान-सा नरेश का।
वर्णवृंतों की शैली तत्सम प्रधान संस्कृत निष्ठ शब्दावली के प्रति राजा चक्रधरसिंह का बड़ा मोह था। उनकी भाषा में अलंकारिता थी :-
शशांक सा आन कांत शांत था,
निरभ्र आकाश समान देह थी
शरन्निशा में लसते ब्रजेश
शरच्छय के नर मूर्तरूप से
सजे हुये थे शिखिपंख केश में
तड़ित्प्रभा सा पट पीत था लसा
गले लगी लगी थी वनमाल सोहतो
ब्रजेश वर्षा छविधाम थे बने।
डॉ. आदर्श राजा चक्रधरसिंह को द्विवेदी कालीन प्रमुख प्रबंध काव्य रचयिताओं में से एक माना है। उनकी रम्यरास नागपुर विश्वविद्यालय में एम. ए. के पाठ्यक्रम के लिए स्वीकृत है। राजा चक्रधरसिंह ने उर्दू में 'जोशे फरहत' और 'निगारे फरहत' लिखा है जो देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुआ है। ये दोनों गजल संग्रह है। 'निगारे फरहत' की भूमिका हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि श्री भगवतीचरण वर्मा ने लिखी है। इसी प्रकार 'जोशे फरहत' सन १९३२ में छपी है। इसमें १७८ गजल संग्रहित है। देखिये खमसा का एक भाव :-
खालिक ने ये दिन हमको दिखाया है जो फरहत
आंखें में समा और समाया है जो फरहत
गुलशन का तमाशा नजर आया है जो फरहत
फिर मोस में गुलजोश पे आया है जो फरहत
क्योंकर वा अनादिल को ये मस्ताना बना दे।
उनकी बजलों में मुहावरेदारी और वंदिशा काबिले तारीफ है-
मिल के कतरा भी दरिया से दरिया बना
हक से बंदा भी मिला के खुदा हो गया।
एक गजल की चंद पंक्तियां भी पेश है :-
राजे दिल आज उनको सुनायें हम
राज उल्फत की उनको दिखाये हम
रूठ जायेंगे अगर वे मनाकर उन्हें
अपने पहलू में लाकर बिठायेंगे हम।
संगीत सम्राट से कोर्ट ऑफ वार्ड्स तक :-
राजा चक्रधरसिंह एक उत्कृष्ट तबला और सितार वादक तथा विलक्षण ताण्डव नर्तक थे। संगीत, नृत्य कला और साहित्य के आयोजन में उन्होंने अपार धनराशि खर्च की जिसके कारण उन्हें ''कोर्ट ऑफ वार्ड्स'' के अधीन रहना पड़ा। अनेक संगीत सम्मेलनों, साहित्यिक समितियों और कला मंडलियों को वे गुप्त दान दिया करते थे। सन् १९३६ और १९३९ में इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन के वे सभापति चुने गये थे। लखनऊ में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में दतिया के नरेश ने राजा चक्रधरसिंह को ''संगीत सम्राट'' की उपाधि से सम्मानित किया था। ऐसे कला साधक राजा चक्रधरसिंह का ७ अक्टूबर १९४७ को ४२ वर्ष की अल्पायु में निधन हो गया। उनके निधन से एक चमकता सितारा डूब गया। लेकिन जब-जब संगीत, नृत्यकला और साहित्य की चर्चा होगी तब-तब उन्हें याद किया जायेगा।
(समलेश्वरी मंदिर)
रायगढ़ रियासत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :-
रायगढ़ रियासत के संस्थापक राजा मदनसिंह थे। बैरागढ़-चांदा से बढ़ते हुए उन्होंने फूलझर राज्य पर कब्जा किया। आगे चलकर उनके वंशज फूलझर से बुनगा आये और राजा जुझारसिंह ने अपने राज्य का सदर मुकाम रायगढ़ को बनाया। रायगढ़ को सदर मुकाम बनाने के पीछे एक किंवदंती प्रचलित है। उसके अनुसार राजा जुझारसिंह एक बार शिकार करते हुए जब रायगढ़ के केलो नदी के किनारे पहुंचे। तब उनके साथ एक विचित्र घटना घटित हुई। अपने मंत्री माझी के साथ उचित जगह की तलाश करते जब वे घनघोर जंगल के बीच केलो नदी के तट पर पहुंचे तब उन्होंने देखा कि केलो नदी के उस पार एक खरगोश शिकारी कुत्ते की ओर झपटा और शिकारी कुत्ता भागने लगा जैसे खरगोश न होकर भोर हो ? इसी प्रकार नदी के इस पार शिकारी कुत्ता खरगोश की ओर झपटता लगता था। राजा बहुत देर तक शिकारी कुत्ते और खरगोश के खेल को देखता रहा फिर उन्होंने अपने मंत्री माझी से इसके बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि यह वीरों की भूमि है। यहां हर कोई भोर की भांति बलवान हो जाता है। गढ़ निर्माण के लिए इससे उपयुक्त स्थान दूसरा कहीं नहीं है। राजा मंत्री की बात को मानकर यहां गढ़ निर्माण की स्वीकृति दे दी। भूमि पूजन की विधि पूछने पर मंत्री माझी ने घुटने टेककर विधि बताने के लिए जैसे ही अपना सिर झुकाया, राजा ने दूरदृष्टिता को ध्यान में रखकर अपने प्रिय मंत्री माझी की बलि चढ़ा दी और भूमि पूजन कर गढ़ निर्माण की आधार शिला रखी। आज भी इस स्थान पर मंत्री मांझी की मूर्ति स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है। इस क्षेत्र को 'नवागढ़ी' कहा जाता है। आज इसके चारों ओर बस्ती बस गयी है। यह गढ़ पूरी तरह से सुरक्षित थी। आगे चलकर यहां मोती महल और बादल महल का निर्माण कराया गया। रायगढ़ रियासत में राजा जुझारसिंह के अलावा राजा देवनाथ सिंह, राजा भूपदेव सिंह, राजा वि वनाथ सिंह, राजा नटवर सिंह, राजा चक्रधर सिंह और राजा ललितसिंह ने शासन किया। रायगढ़ कला, संगीत, नृत्य और साहित्य के लिए पूरे भारत में विख्यात् है। शासन द्वारा प्रतिवर्श गणेश चतुर्थी से 'चक्रधर समारोह' का आयोजन किया जाता है। ०१ जनवरी १९४८ को ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी के पूर्व पांच रियासत रायगढ़, धर्मजयगढ़, जशपुरनगर, सारंगढ़ और सक्ती को मिलाकर 'रायगढ़ जिला' बनाया गया था। इसके पूर्व रायगढ़ बिलासपुर जिलान्तर्गत था। यहां के पहाड़ों की गुफाओं में प्राचीन भित्तिचित्र, सुरक्षित वन क्षेत्र और नदी-नालों का मनोरम दृश्य दर्शनीय है। पूरे प्रदेश में रायगढ़ जिला औद्योगिक जिला के रूप में प्रसिद्ध होता जा रहा है।
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