Rani Padmavati Maravi (Garha), रानी पदमावती मरावी (गढ़ा)

रांगना रानी दुर्गावती (१५२४-१५६४)
भारत के इतिहासकारों के लिए गोंडवाना भू-भाग भारत के आदिवासी वीर सपूतों, महान नारियों की वीरगाथाओं का आलेखन इतिहास के पन्नों पर जरूर दुर्लभ हो सकता है. परन्तु गोंडवाना के आदिम जनजातीय ­­वंशज (गोंडवाना साम्राज्य) के अनेक योद्धाओं, राजा-महाराजाओं तथा कई वीर बालाओं से लोहा लेने वालों को उनकी अदम्य साहस और वीरता जरूर याद आई, जिन्होंने उनके सामने रणभूमि में घुटने टेके. आदिवासी समाज सौभाग्यशाली है, जिसने इतिहास में कई वीर योद्धाओं एवं वीर नारियों को जन्म दिया. जैसे- महारानी कमलावती, जाकुमारी हसला, रानी देवकुँवर, रानी तिलका, जयबेली रानी मोहपाल, रानी कमाल हीरो, रानी हिरई, रानी फूलकुंवर, रानी चमेली, वीरांगना सिंनगीदयी आदि. गोंडवाना की वीरांगनाएं वो माताएं है, जिनकी समृद्ध कर्मभूमि तथा धर्मभूमि का नाम "गोंडवाना" रही है. इसी समृद्ध गोंडवाना भूमी की गर्भ से प्रतापी, विलक्षण, प्रतिभाशाली, संस्कारवान लोग और “भारत देश” पैदा हुआ.
लोग अपने पूर्वजो की वीरगाथाओं को अपने समुदाय तथा समाज के इतिहास से पाया है, किन्तु दुर्भाग्य है गोंडवाना के उन पूर्वजों का जिन्हे इतिहास ने भूला दिया. यह तो इतिहासकरों की पराकाष्ठा का मिसाल है कि ऐसे पूर्वज, जिन्होंने भारत ही नही, दुनिया के पांच भू-खंडो में सदियों सदि तक अपने कर्म और कर्तव्य से मानवजाति को स्थायित्वता प्रदान कीया, उन्हें उनकी धरा के इतिहास में ही गुमनाम बना दिया गया !! यदि युगान्तर में उनकी वीरता दिखाई भी गई तो दास-दस्यु, बंदर-भालू, दैत्य-दानव, राक्षस तथा बुराई के रूप में !! गोंडवाना के आदिकालीन पृष्ठभूमि में आदिवासियों के पूर्वजों के वंशज, गढ़मण्डला, जिसे गढ़ा मंडला भी कहा जाता है, की कर्मवती, धर्मवती, बलवती, रणवती, एवं रणगति प्राप्त करने वाली “वीरांगना रानी दुर्गावती” थी, जिनकी आगामी २४ जून को ४४८वीं पुन्यतिथि देश का आदिम मानव समाज प्रतिवर्ष की भांति मनाने जा रहा है.
विस्तृत गोंडवाना भू-भाग के प्रतापी राजाओं, रानियों के संबंध में कुछ-कुछ विदेशी इतिहासकारों ने अपनी दिलचस्पी दिखाई, जिससे उनके इतिहास की कुछ झाकियां देखी जा सकी. विदेशी इतिहासकारों को गोंडवाना के मानव समाज, उनकी संस्कृति, बोली-भाषा, संस्कृति, साहस, वीरता आदि के बारे में जितनी समझ आई और जानकारी हासिल हो सकी, उन्होंने बखूबी सहेजा, जिसके कारण आज भारतीय मूलनिवासी समाज को उनके ऐतिहासिक पदचाप के निशां मिल सके.
गोंडवाना भू-भाग के अतीत के पन्नों को देखें तो उनके प्रकृतिवादी, मानवतावादी, समाजवादी, संस्कारवादी, धर्मवादी एवं कर्मवादी कला-कौशल की ऐतिहासिक जीवन संरचना में अपार मानवता का खजाना भरा पड़ा है, जिन्हें अनेक तरह से धूमिल करने का प्रयास होता रहा है. जो अवशेष भूमिगत खड़े हैं वे सदियों बीत जाने के बाद आज भी सीना तान के उनकी असली गौरवशाली जीवनरेखा, प्रकृतिवादी, मानवतावादी, समाजवादी, संस्कारवादी, धर्मवादी, कर्मवादी, कला-कौशल की वास्तविक एवं मजबूत आधारशिला की जीवनशैली को बयाँ कर रहे हैं, जिनकी झलक आदिम जनजातियों के लोक साहित्य, लोकगीत, लोक परम्परा, लोकसंस्कृति में आज भी जीवंत हैं. राग-विराग, आनंद–उल्लास, आदर्श जीवन, सेवाभाव, दया, करुणा विरोचित अनेक रोमांचक घटनाएं, देशभक्ति, समाज रचना, नीति-नियम, समता, समानता, स्ववालबन, सहयोग के सैकडो उदाहरण के सागर में कोयावंशी मानव समुदाय जीता है. इतिहास अपनी जगह है. इतिहास रचनाकार भले अनदेखा करें, किन्तु इस भूमि की सैकडो स्मृतियाँ, महल-किले, तालाब, बावली, भूमिगत सुरंग, बागग-बगीचा, नदियों के घाट, स्नानागार के चिन्ह आज भी मैजूद है. रूप सौंदर्य की बोल, लोकभाषा में विरह, प्रेम अपनी मात्रभूमि पर शत्रुओं के हमले पर सैन्य संगठन की गाथा, मात्रभूमि और अपनी इज्जत आबरू की रक्षा, धन-संपत्ति की स्वाधीनता के लिये मर मिटने वाले नर-नारियों के त्याग, बलिदान अमर कीर्ति बन गई है.
स्वाधीनता और इज्जत, आबरू की रक्षा, प्राणों की आहुति करने वाले महान नर-नारियों ने जो आदर्श पेश किया है, ऐसा इतिहास में अन्यत्र कम ही देखने को मिलेगा. कोइतुर नारियों की सबसे बड़ा खजाना है, आबरू. नश्ल की शुद्धता के लिये अपनी धरती को प्राण रहते कभी नही सौपा. इसी गौरव और स्वाभिमान के लिए कोइतुर मानव विश्व में पसिद्ध है. अपने गढ़ में जीते हैं और अपने आस्तित्व को बचाकर रखे हैं.
कोईतुर मानव अपनी इज्जत की रक्षार्थ हमेशा सतर्क रही हैं. जैसे वन्य प्राणी शत्रु या शिकारी के आहट मात्र से अपनी आत्मरक्षा के उपाय सोचता है, वैसे ही कोइतुर नारियां अपने उपर खतरे का या शत्रु का आक्रमण होने के अंदेशा में एक ही आह्वान में बच्चे, प्रौढ़, बूढ़े, बुढियां, नर-नारी संयुक्त रूप से रक्षार्थ तैयार रहते हैं. अपनी बुद्धी, कौशल, युद्ध रचना, सैन्य संचालन, शिकारी युद्ध, गौरिल्ला युद्ध, टिड्डी युद्ध, भौंर माछी युद्ध, हांका युद्ध, तीर, भाला, फरसा, गुलेल, गुर्फेंद, पासमार हथियार, दूरमार हथियार, ककंड, पत्थर, मिर्चिपावडर पानी का घोल, जहर बुझे तीर, तर्कस सबके पास मौजूद रहता है.
बचपन से बच्चे स्त्री-पुरुष युद्ध विद्दया, सिकारी विद्दया, ऊबड़-खाबड, घाट-पहाड, में वन्य प्राणियों को दौड़ाकर पकड़ने जैसे कला में प्रवीण होते हैं. इन विशेषताओं और चातुर्य से शत्रुओं का दांत खट्टे करने की कला इन कोइतुर समाज में कूट-कूट कर भरी रहती है. आज भी कोयावंशियो के सीधे मुकाबले में जीत हासिल करना असंभव है. उन्हें छल या कपट से धोका देकर ही परास्त किया जा सकता है, सो उन्हें हर तरीके से जीवन से परास्त करने के लिए सदियों से उनके साथ छल-बल चल ही रहा है.
गोंडवाना में जन्मे महान वीरांगनाओ मे से यहाँ कुछ नारियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है. गोंडवाना उच्चतम भूमि की वीरांगनाओं में से राजकुमारी हसला (लांजीगढ़), रानी मैनावती (गढ़ा कटंगा), रानी पदमावती (गढ़ा), रानी देवकुँवर (देवगढ़), रानी हिरमोतिन आत्राम (चांदागढ़), रानी कमलावती-भूपाल (गिल्लौरगढ़), रानी सुन्दरी-गढ़ा मण्डला (नामनगर) तथा रानी दुर्गावती (गढाकटंगा). रानी दुर्गावती की जीवनी के साथ इन महान नारियों के सम्बन्ध में कुछ संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत किया जा रहा है :
राजकुमारी हसला (लांजीगढ़)
देवगढ़ राज्य के अंतर्गत एक रियासत लांजीगढ़ था. लांजी बहुत बड़ा प्राचीन राज्य था. अवशेषों से ज्ञात होता है कि कुंवारा भिवसन इसी राज्य को भू-भाग में फैलता था. भिवसन के कई हजार साल बाद लांजीगढ़ एक छोटी सी रियासत ही रह गई थी. लांजीगढ़ में कोटेश्वर राजा की वीर अभिमानी एक कन्या थी. सत्य, निष्ठा, जाति, धर्म, और अपने पिता की आज्ञा पालन करने विजातीय सफाई सेवक से विवाह करना स्वीकार तो किया लेकिन अपनी जातीय, धर्म की रक्षा भी की.
एकबार उनके पिता राजा कोटेश्वर मुसीबत में फसकर पायखाने के नांद में गिर गये थे. वहाँ से निकालने की शर्त पर मेहतर ने राजकुमारी हसला का हाथ माँगा था. मुक्ति के लिये उसका शर्त मानकर राजा कोटेश्वर ने अपनी सत्य वचन का पालन किया. पिता के सत्यवचन और अपनी आन-मान की रक्षा करने उनकी बेटी (राजकुमारी) मेहतर से विवाह करने को तैयार हो गई. साथ ही अभिशिप्त भी किया हसला कुवारी ने- कि मुझ सुंदर राजकुमारी का विवाह गैर जाति से करने से अब यहाँ १४ वर्षों तक किसी गोंड युवक युवती का विवाह नही होगा.
शर्त के अनुसार विवाह हुआ तथा शादी का डोला जाते-जाते जैसे तलबा में पहुंचा, राजकुमारी और कुमार आत्म हत्या कर लिये. आत्म ग्लानी से मेहतर ने भी तालाब में कूदकर अपनी जान दे दी. आज तालाब के मेंढ में राजकुमारी हसला की समाधि है. हर वर्ष माघ पूर्णिमा को मेला भरता है. पिता की आज्ञा और अपनी जाति स्वाभिमान के लिये हसला कुंवारी शहीद होकर अपने आंचल को धब्बा नहीं किया. वही लंजकाई देवी के नाम से जग में प्रसिद्ध हुआ.
रानी मैनावती मरावी (कटंगा)
गढा कटंगा के राजा दुर्जनमल, यदुराय के वंशज १९वीं पीढ़ी में राज्य करता था. उसका वीर योद्धा पुत्र राकुमार यशकर्ण हुआ, जो बहादुरी और युद्धकला में प्रवीण था. उसका विवाह राजकुमारी मैनावती से हुआ. दोनों की प्रेम कहानी जग प्रसिद्ध हुआ. जन-जन के ह्रदय में विराजमान राजा कर्ण-मैनावती की गाथा अमर हो गयी. उनके प्रेम के नाम से नगर, घाट, तालाब इत्यादि का निर्माण किए गए और जनता के सुख-दुख में भागीदार होकर अमन चैन से नृत्य-संगीत और लोक संस्कृति को बढ़ावा मिला. गांव-गांव, नगर-कस्बा में उनके व्दारा रचे, बनाये गीत जन-जन के कंठ से निकलती थी. कर्मा, शैला, झूमर, लहकी, रेला पाटा, सुवा, डमकच, हर्ष विशाद और गीतों से गोंडवाना में रसिक प्रिय राजा-रानी की जोड़ी अमर कीर्ति बन गई. जहां ठहरे राजा डेरा, जहां स्नान किये राजा-रानी घाट, ऐसे अनेकों स्थानों में इस दम्पत्ति की गाथा अमर है. इन्होंने गोंडवाना के नर-नारियों के बीच गीत-संगीत में अपनी अमर गाथा छोड़ गए :
कहाँ गए मोर राजा कर्ण चिरइया रोवथे,
नैंना गढ़ के रानी मैनावती, राजा कर्ण की रानी.
गीत संगीत में जग को दे गयी निशानी,
मैनावती कर्ण की अमर है यही निशानी.
गढ़ कटंगा के ३६ वर्षो के शासन काल में राजा कर्ण की रानी प्रेम, करुणा और दया की सागर मैनावती गोंडवाने में अमर कथा छोड गई.
रानी पदमावती मरावी (गढ़ा)
गढ़ा के संस्थापक राजा यदुराय के ४८वीं पीढ़ी में महाराजा संग्रामशाह गढ़ मण्डला के सम्राट हुए. उनकी कीर्ति और यश प्राप्त करने में महरानी पदमावती का बहुत बड़ा त्याग और बुद्धि कौशल था. रानी पदमावती राजा संग्रामशाह की पटरानी थी, जो ५२ गढ़ ५७ परगने जीतने में राजा संग्रामशाह को साथ दिया. गढ़ कटंगा में दरबारे आम, संग्राम सागर, घुडसाल, हाथीद्वार, रानीताल और बाजनामठ की सिद्धि रानी पदमावती कि बुद्धि चातुर्य से हुआ.
बताया जाता है कि राजा संग्रामशाह भैरव बाबा के अनन्य भक्त थे. राजा संग्राम शाह हर रोज प्रात: काल पक्षियों के जागने से पहले नर-मादा (नर्मदा) में जाकर स्नान करते थे तथा स्नान के बाद बाबा की पूजा एवं तपस्या के रूप में अपना सिर काटकर भैरव बाबा को अर्पित करते थे. उसी समय भैरव बाबा प्रकट होकर उनका सिर पुन: स्थापित कर देते थे. भैरव बाबा और राजा संग्रामशाह के बीच इस तरह भक्त और भक्ति का समागम कब से चल रहा था, किसी को पता नहीं था, हर रोज स्नान के पश्चात बाबा के लिये उनकी तपस्या इसी प्रकार से होती थी. एक दिन एक अघोरी भी नर-मादा जी में उसी समय स्नान करने आया, किन्तु राजा को इसका भान नही हुआ. राजा हर रोज कि तरह अपना स्नान और तप का कार्य पूरा करता. हर रोज भैरव बाबा प्रकट होकर उसका सिर पुनर्स्थापित करते. अघोरी, राजा की इस घटना को देखने हर दिन राजा से नजर छुपाके नर्मदा जी में स्नान करने जाया करने लगा. प्रतिदिन भैरव बाबा और राजा के बीच शक्ति और भक्ति को देखकर अघोरी के मन में ग्लानी पैदा हो गया. वह सोचने लगा कि राजा की बली चढाकर वह भैरव का भक्त बन जायेगा तथा राजा के मरने के बाद वह राजा बनकर राजगद्दी पर बैठ जाएगा. एक दिन अघोरी की इस युक्ति का भैरव बाब ने राजा के ह्रदय में अंतरप्रवाह कर दिया, जिससे वे विचलित हो गये और रानी पदमावती को सारी घटना बता दिए. वे समझ नही पा रहे थे कि एक अघोरी के मन में यह भावना जगी कैसे एवं भविष्य में होने वाली घटना से कैसे निपटें. अंतरमन की सूचना के अनुसार रानी की सूझ-बूझ से राजा स्नान के लिये नरमादा जी गये और अपना नितकर्म जरी रखा. रानी का भाई शक्तिसिहं छुपकर अघोरी के आने के इंतजार में था. राजा अपने सिर भैरव को अर्पित करने वाला था उसी समय जैसे ही अघोरी राजा का सिर काटने वाला था, वैसे ही शक्तिसिंह ने अघोरी का सिर तलवार से काटकर धड सहित खौलते तेल के कड़ाहा में गिरा दिया. अघोरी को रक्तबीज की शक्ति हासिल था. राजा को भौरव बाबा दर्शन देकर आशीर्वाद दिया और राजा की नित्य तपस्या का यहीं से अंत हो गया.
६८ वर्ष के राजा के राज-काज में पदमावती, राजा के अंगरक्षक की भांति साथ में रहती थी. उनकी कर्म क्रान्ति, मातृभूमी की समृद्धी, जन्समुदाय की सुख तथा समृद्धी के लिए त्याग और बलिदान से गोंडवाना राज्य में सोने का सिका चला. कोई भूखा न था, न ही कोई भीख माँगता था. रानी इतनी महान थी जिसके प्रताप से १०,००० हाथी, स्वर्ण भण्डार और अनेक गढ़-किले बनवाए गए. राजा संग्रामशाह की सफलता की कुंजी रानी पदमावती ही थी.

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